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सादी मेरी सोच पर, चुभते तेरे तीर,
शब्दों के चयन से, नयन भए अब नीर।
नयन भए अब नीर, कि ये परिवेश हुआ गंभीर,
उभरे मेरे पीर, जब तुझे तुच्छ लगे ये चीर।
सादी मेरी सोच पर, चुभते तेरे तीर।

अग्नि क्या व्याकुल करे, जब सोच तेरी संकीर्ण,
व्याकुलता भी क्षीण, कि अब अग्नि त्यागे शरीर।
सादी मेरी सोच पर, चुभते तेरे तीर।

कल, 17 फरवरी 2025 को, जब मैं एक​ दुकान से वापस आ रहा था, मैंने देखा कि एक लड़की बड़े से स्टील के कंटेनर के साथ फुटपाथ के किनारे चल रही थी, और अपने मोबाइल में व्यस्त थी। कई जगहों पर फुटपाथ की हालत खराब है—कहीं दुकानदारों ने कब्ज़ा कर रखा है, तो कहीं कचरे का ढेर लगा है, जिससे लोग सड़क पर चलने को मजबूर हैं।

मेरी नज़र तीन लड़कों के एक ग्रुप पर पड़ी, जो एक ही बाइक पर तेज़ी से आ रहे थे। वे लड़की के पास से गुज़रते वक्त जानबूझकर उसके करीब से गुज़रे, उसे छेड़ने की कोशिश की। वह एक पल के लिए चौंकी, उन्हें घूरा, फिर वापस फुटपाथ पर चली गई और अपने फोन में व्यस्त हो गई। पीछे बैठे दो लड़के बेहयाई से हँसे और तेज़ी से चले गए।

जब मैंने अपनी पत्नी को यह बताया, तो उन्होंने कहा, “यह तो लड़कियोँ के लिये आम बात​ है; वो इन सब पर​ ध्यान नहीं देतीं।” उनकी बात ने मुझे परेशान कर दिया। इस घटना ने मुझे सालों पहले की एक घटना की याद दिलाई, जो दिखाती है कि लड़कों का लड़कियोँ को इस तरह परेशान करना समय के साथ बना हुआ है। मैं अपनी बहन को उसके PG तक छोड़ने जा रहा था। रेलवे स्टेशन पर, कुछ शरारती लोग चलती ट्रेन से अपनी गन्दी परवरिश का परिचय दे रहे थे। काले अन्धेरे के वो काले चहरे तो मुझे याद नहीं, लेकिन आज भी मुझे वह गुस्सा और बेबसी याद है जो मैंने उस समय​ महसूस की थी। मेरी बहन उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुऐ आगे बड़ गयी, मानो कुछ हुआ ही ना हो।

ऐसी घटनाएँ मुझे गुस्से से भर देती हैं। आदमी और औरत धरती पर जन्मे वो दो प्राणी हैं, जो प्रकृति की नज़र में समान हैं, और अपनी अलग पहचान रखते हैं। मगर किसी लड़की की ख़ासियत को उसकी कमी के रूप में पेश करके, समाज ने लड़कियों का स्थान कमज़ोर बना दिया है। जिससे अपने फ़ायदे के लिए कभी भी उनका इस्तेमाल किया जा सके। यही तो होता है समाज के हर कमज़ोर वर्ग के साथ।

क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि लोग लगातार परेशान होने के डर में कैसे जीते हैं? उनके मन में क्या चलता है? और उनके माता-पिता के बारे में क्या? मैं कोलकाता रेप केस या दिल्ली निर्भया केस जैसे हाई-प्रोफाइल मामलों की बात नहीं कर रहा हूँ। रोज़ाना अनगिनत घटनाएँ होती हैं, जो दिखाती हैं कि कुछ तथाकथित “सभ्य” लोग कैसे बीमार मानसिकता के हो रहे हैं। यह मुद्दा सिर्फ शिक्षा का नहीं है — यह ख़ुशी के आशक्त हुए हमारे दुर्बल​ व्यवहार को दिखाता है, जिसमें हम अपनी रीढ़ की हड्डी खो चुके हैं।

हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां कचरे के बीच में लिए गए साफ-सुथरे फोटो हजारों लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं। उनमें से बहुत से लोग भद्दे कमेंट्स के साथ एक साफ-सुथरे माहौल को शर्मिंदगी से भर देते हैं। और क्यों न करें, आखिर ये आसान है। घर बैठे, बिना रीढ़ की हड्डी सीधा किए, यह बहुत आसानी से किया जा सकता है।

डर सिर्फ वयस्क महिलाओं तक सीमित नहीं है। कुछ दिन पहले, एक 20 साल का लड़का अपनी बाइक मेरी बाइक की तरफ़ लहराकर निकला और हँसता हुआ चला गया। जहाँ मेरी बेटी हैरान थी, वहीं मैं उस लड़के की कमज़ोर मानसिकता में झाँक रहा था। 10 साल की इस कम उम्र में मेरी बेटी का समाज और उसके पहरेदारों से उम्मीद रखना ग़लत कैसे हो सकता है? बस स्टॉप से घर तक के 100 क़दम की दूरी कोई माँ-बाप सिर्फ़ खुशी के लिए तय नहीं करते। मैं नहीं चाहता कि कोई अपना बचपन इस नासमझ समाज के खोखलेपन को समझने में खो दे।

मैंने हाल ही में एक ऐप से जुड़ा, जहाँ लोग अजनबियों से जुड़कर भाषा सीखते हैं, वहाँ यह देखकर कोई हैरानी नहीं हुई कि दुनिया के हर हिस्से में लड़कियाँ लड़कों की गिरी हुई सोच से पूरी तरह वाकिफ़ हैं। उन्होंने अपनी प्रोफ़ाइल में साफ़ शब्दों में लिखा था कि उन्होंने यह प्लेटफ़ॉर्म सिर्फ़ भाषा सीखने के उद्देश्य से जॉइन किया है, इसलिए कोई भी लड़का उनसे किसी और मकसद से संपर्क न करे। लड़कों के गंदे स्वभाव का अनुमान लगाना अब कितनी आम बात हो गई है। तीन साल पहले, मैंने इंस्टाग्राम पर अपनी बेटी, जिसकी उम्र सिर्फ़ 7 साल थी, का profile private कर दिया ताकि केवल परिवार और दोस्त ही उसकी उपलब्धियाँ देख सकें। शायद आप समझ सकें कि किस मानसिकता के लोगों से रूबरू होकर मैंने यह फैसला लिया। कैसे तय करें कि इसमें कौन ग़लत है? वो लोग जो सोशल मीडिया पर अपने खुशहाल पल साझा कर रहे हैं, वो लोग जो दूसरों को मानसिक तौर पर परेशान कर रहे हैं, या फिर खुद वो प्लेटफॉर्म्स, जो अपने फ़ायदे के लिए ऐसे लोगों को अपने प्लेटफॉर्म से जुड़ने दे रहे हैं?

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खुद में एक समाज बन गए हैं जहाँ विभिन्न संस्कृतियों के लोग बातचीत करते हैं। मगर हर समाज के कुछ नियम-कायदे होते हैं, जिससे उसमें रहने वाले लोग चैन की ज़िंदगी जी सकें। फिर आखिर सोशल मीडिया के नियम-कायदे उसके यूज़र्स के हित में क्यों नहीं? 18+ कंटेंट्स को सिर्फ़ चेतावनी के साथ पेश कर देना, उनकी पैसों के प्रति लालसा को दिखाता है। कंटेंट दिखाते समय उम्र और उस देश की संस्कृति को ध्यान में रखना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

टेलीग्राम ने इस साल 7 लाख से अधिक चैनल को बन्द​ किया जो बाल यौन शोषण से संबंधित थे। यहाँ जिम्मेदार कौन है? मानसिक विकलांग होती हुई नई जेनरेशन, या उसे विकलांग करते प्लेटफॉर्म, जो किसी की शिकायत करने तक ऐसे गंदे कंटेंट्स को फैलने देते हैं?

आजकल भाषा में भद्दे शब्दों का इस्तेमाल गर्व की बात मानी जाती है। लड़कियों के नाम पर बने गंदे शब्द, जो पहले उन्हें शर्मिंदा करने के लिए गढ़े गए थे, अब लड़कियाँ खुद ही इस्तेमाल करने लगी हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्हें FOMO (Fear of Missing Out) न हो। मुझे अब भी याद है, जब एक FM शो पर एक लड़की ने कहा था— “अगर लड़के सिगरेट पी सकते हैं, तो लड़कियाँ क्यों नहीं?” कोई समझाए उन्हें कि सिगरेट पीना कोई प्रतियोगिता नहीं है। और न ही गाली-गलौज को अपनी भाषा में घुसा लेना कोई मजबूरी है। मुझे एक comedy show याद है, जहाँ होस्ट ने एक भद्दा शब्द कहा, फिर रुका… और पूरा स्टूडियो हँसी में फूट पड़ा। शायद मैं उन कुछ लोगों में से था जो अब भी सोच रहे थे— “सब हँसे क्यों?” अगर आप शरीर के निजी अंगों पर खुलकर मज़ाक कर सकते हैं, या अपने ही परिवार के सदस्यों का भद्दे शब्दों में मज़ाक उड़ा सकते हैं, तो शायद आपके लिए comedy में करियर बनाने के अच्छे मौके हैं!

कुछ दिन पहले, मैंने “छावा” फिल्म देखी, जिसने मुझे भावुक कर दिया। मैं सिर्फ एक शूरवीर को नहीं देख रहा था, जिसने अपनी भूमि, संस्कृति और लोगों की रक्षा के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया—मैं इसकी तुलना आज की दुनिया से कर रहा था, जहाँ लोग अपनी ही भाषा में दूसरों का सम्मान तक नहीं कर सकते। Comedy shows को छोड़िए—क्या आप एक भी ऐसा आदमी जानते हैं, जिसने कभी किसी महिला पे आधरित​ गंदे शब्दों का इस्तेमाल न किया हो? Office, दोस्तों के बीच, यहाँ तक कि घरों में भी! हर किसी के पास लड़कियों पर भद्दे शब्दों का इस्तेमाल करने का कोई न कोई बहाना होता है— “अरे, गहरे दोस्त ऐसे ही बात करते हैं!” “हम तो सिर्फ लड़कों के बीच ही ऐसा बोलते हैं!” पर सवाल ये है कि क्या ये आपको मज़बूत इंसान बनाता है? क्या आप किसी महान व्यक्ति का नाम बता सकते हैं जिसने अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए लड़कियों पर आधारित भद्दे शब्दों का इस्तेमाल किया हो?

OTT प्लेटफॉर्म्स ऐसे कंटेंट से भरे पड़े हैं, जहाँ महिलाओं को कहानी में गहराई लाने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ दर्शकों को लुभाने के लिए शामिल किया जाता है। ये प्लेटफॉर्म यह तक स्पष्ट चेतावनी नहीं देते कि कौन-सा show पारिवारिक रूप से देखने योग्य है या नहीं। नतीजा? कई बार लोग अजीबो-गरीब स्थिति में फँस जाते हैं, जहाँ वो एक-दूसरे से नज़र नहीं मिला पाते। और कई बार दिखावा करते हैं कि कुछ हुआ ही नहीं। यह असहजता अब उन सभी की रोज़मर्रा की सच्चाई बनती जा रही है, जो इन OTT प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा नहीं कि इस समस्या का कोई हल नहीं है। मगर इससे हो सकता है कुछ दर्शक कम हो जाएँ, जो कि OTT प्लेटफॉर्म्स के बिज़नेस को नुकसान पहुँचा सकता है। मैं यह नहीं कहता कि अश्लील कंटेंट को OTT प्लेटफॉर्म्स से पूरी तरह हटा देना चाहिए। मगर कौन, कब, क्या देखना चाहता है—इस बात का फैसला करने का हक़ उसके यूज़र्स को होना चाहिए।

हम उसी समाज में रहते हैं, जिसे हमने खुद बनाया है—ऐसे नियम बनाकर, जो कमजोरों की सुरक्षा के लिए थे। महिलाओं की रक्षा के लिए पहले कई कानून बनाए गए, जो उस समय ज़रूरी भी रहे होंगे। मगर जैसे-जैसे समाज बदला, इन नियमों पर दोबारा विचार ही नहीं किया गया। कई स्वतंत्र सोच रखने वाले लोगों ने पुरानी परंपराओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, तब जाकर बदलाव आया। इस समाज को बदलना शायद कठिन होगा, मगर क्या हम खुद में भी बदलाव नहीं ला सकते?

माने ना माने, इतिहास गवाह है कि किसी मर्द या मर्दानी को हराने के लिए किसी भरोसेमंद विश्वासघाती का बहुत बड़ा हाथ रहा है। Toxic Feminism आज के युग में लड़कियों के लिए धोखे की जगह पर प्रयोग किया जाने वाला नया और आधुनिक शब्द बन चुका है। बहुत सी लड़कियाँ प्रतिस्पर्धा के नाम पर मनोरंजन का साधन बन रही हैं। और सच कहें तो इसे रोकने के लिए कोई लड़का आगे नहीं आना चाहेगा, क्योंकि वही तो यही चाहता है।

मैं पुरुषों के संघर्ष और उनके योगदान को नज़रअंदाज नहीं कर सकता। मेरा ग़ुस्सा लड़के, लड़कियों, OTT प्लेटफॉर्म्स और समाज के लिए समान रूप से है, जो प्रतिस्पर्धा, नाम और पैसों के आगे खुद को कमज़ोर बनाते जा रहे हैं।

और आख़िर में, मैं उन सभी लड़कियों की सराहना करना चाहता हूँ, जो अपने भीतर हज़ारों अनकहे और दबे हुए ख़्यालों के बावजूद, हर दिन दुनिया के सामने शांत और मज़बूत बनी रहती हैं।



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Amit
Amit A free-thinker who values equality, embraces creativity, and believes every problem has a solution—it's just a matter of better design.

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